अपनी अना की आज भी तस्कीन हम ने की
जी भर के उस के हुस्न की तौहीन हम ने की
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दरवेश नज़र आता था हर हाल में लेकिन
दहर के अंधे कुएँ में कस के आवाज़ा लगा
ऐसे घर में रह रहा हूँ देख ले बे-शक कोई
ग़ार से संग हटाया तो वो ख़ाली निकला
मिले मुझे भी अगर कोई शाम फ़ुर्सत की
वो मुसलसल चुप है तेरे सामने तन्हाई में
पता कैसे चले दुनिया को क़स्र-ए-दिल के जलने का
मिरे ही हर्फ़ दिखाते थे मेरी शक्ल मुझे
वो दोस्त था तो उसी को अदू भी होना था
मिरे घर से ज़ियादा दूर सहरा भी नहीं लेकिन
मुझे नहीं है कोई वहम अपने बारे में