अब तिरे लम्स को याद करने का इक सिलसिला और दीवाना-पन रह गया
ग़मों में कुछ कमी या कुछ इज़ाफ़ा कर रहे हैं
हर एक शक्ल में सूरत नई मलाल की है
इक ख़्वाब नींद का था सबब, जो नहीं रहा
हमें नहीं आते ये कर्तब नए ज़माने वाले
चुप है आग़ाज़ में, फिर शोर-ए-अजल पड़ता है
कभी किसी से न हम ने कोई गिला रक्खा
एक दुनिया की कशिश है जो इधर खींचती है
कहाँ न-जाने चला गया इंतिज़ार कर के
दिल के पर्दे पे चेहरे उभरते रहे मुस्कुराते रहे और हम सो गए
ब-ज़ोम-ए-अक़्ल ये कैसा गुनाह मैं ने किया
जो बे-रुख़ी का रंग बहुत तेज़ मुझ में है