ये क़ौल किसी बुज़ुर्ग का सच्चा है
हमारी गाय
इक आलम-ए-ख़्वाब ख़ल्क़ पर तारी है
गर नेक दिली से कुछ भलाई की है
ऐ बे-ख़बरी की नींद सोने वालो
कैफ़ियत-ओ-ज़ौक़ और ज़िक्र-ओ-औराद
बे-कार न वक़्त को गुज़ारो यारो
अपने ही दिल अपनों का दुखाते हैं बहुत
किस तौर से किस तरह से क्यूँ कर पाया
थोड़ा थोड़ा मिल कर बहुत हो जाता है
पानी में है आग का लगाना दुश्वार
चौपाए की तरह तू किताबों से न लद