ऐ बे-ख़बरी की नींद सोने वालो
राहत-तलबी में वक़्त खोने वालो
कुछ अपने बचाओ की भी सोची तदबीर
ऐ डूबती नाव के डुबोने वालो
Habib Jalib
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चौपाए की तरह तू किताबों से न लद
जब तक कि सबक़ मिलाप का याद रहा
ईद-ए-रमज़ाँ है आज बा-ऐश-ओ-सुरूर
किस तौर से किस तरह से क्यूँ कर पाया
है बार-ए-ख़ुदा कि आलम-आरा तू है
इसराफ़ से एहतिराज़ अगर फ़रमाते
देखा तो कहीं नज़र न आया हरगिज़
गर्मी का मौसम
करता हूँ सदा मैं अपनी शानें तब्दील
क़ौस-ए-क़ुज़ह
तक़रीर से वो फ़ुज़ूँ बयान से बाहर
है शुक्र दुरुस्त और शिकायत ज़ेबा