अक्सर ने है आख़िरत की खेती बोई
अक्सर ने है उम्र जुस्तुजू में खोई
आख़िर को अगर पता मिला तो ये ही मिला
मिलने का नहीं सिवाए अपने कोई
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रात
आजिज़ है ख़याल और तफ़क्कुर-ए-हैराँ
गर जौर-ओ-जफ़ा करे तो इनआ'म समझ
तक़रीर से वो फ़ुज़ूँ बयान से बाहर
गर रूह न पाबंद-ए-तअ'य्युन होती
बदला नहीं कोई भेस नाचारी से
इक आलम-ए-ख़्वाब ख़ल्क़ पर तारी है
मक़्सूद है क़ैद-ए-जुस्तुजू से बाहर
वाहिद मुतकल्लिम का हो जो मुंकिर
गर्मी का मौसम
काठ की हंडिया चढ़ी कब बार बार
ऐ बे-ख़बरी की नींद सोने वालो