हुस्न का इत्र जिस्म का संदल
इस हसीं जाम में हैं ग़ल्तीदा
याद-ए-माज़ी में यूँ ख़याल तिरा
आज मुद्दत के ब'अद होंटों पर
सर्फ़-ए-तस्कीं है दस्त-ए-नाज़ तिरा
अपने आईना-ए-तमन्ना में
उफ़ ये उम्मीद-ओ-बीम का आलम
दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
चंद लम्हों को तेरे आने से
यूँ दिल की फ़ज़ा में खेलते हैं
इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
किस को मालूम था कि अहद-ए-वफ़ा