दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
कितने मीठे सुरों में गाती है
सुब्ह के इस हसीं धुँदलके में
क्या यहीं भैरवीं नहाती है
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हाए ये तेरे हिज्र का आलम
ना-मुरादी के ब'अद बे-तलबी
उफ़ ये उम्मीद-ओ-बीम का आलम
हुस्न का इत्र जिस्म का संदल
तितली कोई बे-तरह भटक कर
यूँ उस के हसीन आरिज़ों पर
इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
इक ज़रा रसमसा के सोते में
सर्फ़-ए-तस्कीं है दस्त-ए-नाज़ तिरा
दोस्त! तुझ से अगर ख़फ़ा हूँ तो क्या
कर चुकी है मिरी मोहब्बत क्या