हाए ये तेरे हिज्र का आलम
किस क़दर ज़र्द है हसीं महताब
और ये मस्त आबशार की लै
कोई रोता हो जैसे पी के शराब
Allama Iqbal
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मैं ने माना तिरी मोहब्बत में
इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
कर चुकी है मिरी मोहब्बत क्या
चंद लम्हों को तेरे आने से
रात जब भीग के लहराती है
अपने आईना-ए-तमन्ना में
ना-मुरादी के ब'अद बे-तलबी
यूँ उस के हसीन आरिज़ों पर
सर्फ़-ए-तस्कीं है दस्त-ए-नाज़ तिरा
तेरे माथे पे ये नुमूद-ए-शफ़क़
इक ज़रा रसमसा के सोते में