हुस्न का इत्र जिस्म का संदल
आरिज़ों के गुलाब ज़ुल्फ़ का ऊद
बाज़ औक़ात सोचता हूँ मैं
एक ख़ुशबू है सिर्फ़ तेरा वजूद
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इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
ना-मुरादी के ब'अद बे-तलबी
दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
दोस्त! तुझ से अगर ख़फ़ा हूँ तो क्या
कितनी मासूम हैं तिरी आँखें
अपने आईना-ए-तमन्ना में
अब्र में छुप गया है आधा चाँद
आ कि इन बद-गुमानियों की क़सम
आज मुद्दत के ब'अद होंटों पर
इक ज़रा रसमसा के सोते में
सर्फ़-ए-तस्कीं है दस्त-ए-नाज़ तिरा
किस को मालूम था कि अहद-ए-वफ़ा