अब्र में छुप गया है आधा चाँद
चाँदनी छन रही है शाख़ों से
जैसे खिड़की का एक पट खोले
झाँकता हो कोई सलाख़ों से
Ahmad Faraz
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सर्फ़-ए-तस्कीं है दस्त-ए-नाज़ तिरा
हाए ये तेरे हिज्र का आलम
याद-ए-माज़ी में यूँ ख़याल तिरा
तितली कोई बे-तरह भटक कर
तेरे माथे पे ये नुमूद-ए-शफ़क़
ना-मुरादी के ब'अद बे-तलबी
इक ज़रा रसमसा के सोते में
अंगड़ाई ये किस ने ली अदा से
इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
आज मुद्दत के ब'अद होंटों पर
कर चुकी है मिरी मोहब्बत क्या