अंगड़ाई ये किस ने ली अदा से
कैसी ये किरन फ़ज़ा में फूटी
क्यूँ रंग बरस पड़ा चमन में
क्या क़ौस-ए-क़ुज़ह लचक के टूटी
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दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
मैं ने माना तिरी मोहब्बत में
तेरे माथे पे ये नुमूद-ए-शफ़क़
इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
किस को मालूम था कि अहद-ए-वफ़ा
हुस्न का इत्र जिस्म का संदल
आज मुद्दत के ब'अद होंटों पर
इस हसीं जाम में हैं ग़ल्तीदा
कर चुकी है मिरी मोहब्बत क्या
अपने आईना-ए-तमन्ना में
चंद लम्हों को तेरे आने से
यूँ ही बदला हुआ सा इक अंदाज़