इस हसीं जाम में हैं ग़ल्तीदा
कितने नाज़ुक तख़य्युलात के मोड़
कितने गुल-आफ़रीं लबों का रस
कितने रंगीन आँचलों का निचोड़
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दोस्त! क्या हुस्न के मुक़ाबिल में
सर्फ़-ए-तस्कीं है दस्त-ए-नाज़ तिरा
तितली कोई बे-तरह भटक कर
कितनी मासूम हैं तिरी आँखें
इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
आ कि इन बद-गुमानियों की क़सम
अंगड़ाई ये किस ने ली अदा से
यूँ उस के हसीन आरिज़ों पर
दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
अब्र में छुप गया है आधा चाँद
मैं ने माना तिरी मोहब्बत में