कितनी मासूम हैं तिरी आँखें
बैठ जा मेरे रू-ब-रू मिरे पास
एक लम्हे को भूल जाने दे
अपने इक इक गुनाह का एहसास
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चंद लम्हों को तेरे आने से
आ कि इन बद-गुमानियों की क़सम
ना-मुरादी के ब'अद बे-तलबी
इक ज़रा रसमसा के सोते में
हुस्न का इत्र जिस्म का संदल
आज मुद्दत के ब'अद होंटों पर
इक नई नज़्म कह रहा हूँ मैं
यूँ ही बदला हुआ सा इक अंदाज़
यूँ उस के हसीन आरिज़ों पर
रात जब भीग के लहराती है
दोस्त! क्या हुस्न के मुक़ाबिल में
उफ़ ये उम्मीद-ओ-बीम का आलम