दोस्त! क्या हुस्न के मुक़ाबिल में
इश्क़ की जीत सुन सकेगी तू
दिल-ए-नाज़ुक से पहले पूछ तो ले
क्या मिरे गीत सुन सकेगी तू
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हाए ये तेरे हिज्र का आलम
मैं ने माना तिरी मोहब्बत में
याद-ए-माज़ी में यूँ ख़याल तिरा
चंद लम्हों को तेरे आने से
इस हसीं जाम में हैं ग़ल्तीदा
अंगड़ाई ये किस ने ली अदा से
यूँ ही बदला हुआ सा इक अंदाज़
आज मुद्दत के ब'अद होंटों पर
सर्फ़-ए-तस्कीं है दस्त-ए-नाज़ तिरा
अपने आईना-ए-तमन्ना में
यूँ नदी में ग़ुरूब के हंगाम
आ कि इन बद-गुमानियों की क़सम