यूँ नदी में ग़ुरूब के हंगाम
जगमगाती शफ़क़-फरोज़ किरन
चलते चलते भी आइना देखे
जैसे कोई सजी-सजाई दुल्हन
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दोस्त! क्या हुस्न के मुक़ाबिल में
दूर वादी में ये नदी 'अख़्तर'
मैं ने माना तिरी मोहब्बत में
एक कम-सिन हसीन लड़की का
आ कि इन बद-गुमानियों की क़सम
अंगड़ाई ये किस ने ली अदा से
ना-मुरादी के ब'अद बे-तलबी
कितनी मासूम हैं तिरी आँखें
तितली कोई बे-तरह भटक कर
हुस्न का इत्र जिस्म का संदल
याद-ए-माज़ी में यूँ ख़याल तिरा
रात जब भीग के लहराती है