हर क़ल्ब पे बिजलियाँ गिराती आई
एक आग सी हर तरफ़ लगाती आई
खिलते जाते हैं ज़ख़्म-हा-ए-कोहना
फिर सुब्ह-ए-बहार मुस्कुराती आई
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सरमाया-ए-ए'तिबार दे दें तुम को
अब दुश्मन-ए-जाँ ही कुल्फ़त-ए-ग़म साक़ी
तुम तेशा-ए-बाग़बाँ से क्यूँ मुज़्तर हो
अंदाज़-ए-जफ़ा बदल के देखो तो सही
फूलों से तमीज़-ए-ख़ार पैदा कर लें
अफ़्लास अच्छा न फ़िक्र-ए-दौलत अच्छी
मिलना किस काम का अगर दिल न मिले
नाला तेरा नाज़ से बाला है