हम फ़क़ीरों की बात क्यूँ पूछो
रोज़ मरते हैं, रोज़ जीते हैं
इक नया ज़ख़्म दिन को मिलता है
इक नया ज़ख़्म शब को सीते हैं
Rahat Indori
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Allama Iqbal
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Gulzar
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Wasi Shah
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Jaun Eliya
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Faiz Ahmad Faiz
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ज़िंदगी की हसीन शहज़ादी
मिरी गली में ये आहट थी किस के क़दमों की
इतनी तल्ख़ फ़ज़ा में भी हम ज़िंदा हैं
बड़ी शफ़ीक़, बड़ी ग़म-शनास लगती हैं
आरज़ू के दिए जलाने से
दिल-जलों को सताने आए हैं
काविश-ए-सुब्ह-ओ-शाम बाक़ी है
गुलों का, नग़्मों का, ख़्वाबों का चाँदनी का सलाम
तुम घटाओं का एहतिमाम करो
दर्द का जाम ले के जीते हैं
तुम्हारी याद के उजड़े हुए, उदास चमन