इतनी तल्ख़ फ़ज़ा में भी हम ज़िंदा हैं
अपने दर्द के सूरज से ताबिंदा हैं
ढलती रात के तारे हैं हम सहरा में
सच पूछो तो ख़ुद से भी शर्मिंदा हैं
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मिरी जवानी बहारों में भी उदास रही
तू मिरे साथ अब नहीं है दोस्त
मिरी गली में ये आहट थी किस के क़दमों की
दर्द का जाम ले के जीते हैं
आ कि बज़्म-ए-तरब सजा लें हम
आरज़ू के दिए जलाने से
ऐ ग़म-ए-दोस्त, हम ने तेरे लिए
दिल-जलों को सताने आए हैं
सख़्त-जाँ भी हैं और नाज़ुक भी
तुम्हारी याद के उजड़े हुए, उदास चमन
बड़ी शफ़ीक़, बड़ी ग़म-शनास लगती हैं