सख़्त-जाँ भी हैं और नाज़ुक भी
दर्द के बावजूद जीते हैं
ज़िंदगी ज़हर है, मगर हम लोग
छान कर गेसुओं में पीते हैं
Parveen Shakir
Anwar Masood
Wasi Shah
Habib Jalib
Gulzar
Ahmad Faraz
Rahat Indori
Jaun Eliya
Faiz Ahmad Faiz
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मिरी गली में ये आहट थी किस के क़दमों की
इतनी तल्ख़ फ़ज़ा में भी हम ज़िंदा हैं
काविश-ए-सुब्ह-ओ-शाम बाक़ी है
मिरी जवानी बहारों में भी उदास रही
तुम गुनाहों से डर के जीते हो
तू मिरे साथ अब नहीं है दोस्त
न तेरे दर्द के तारे ही अब सुलगते हैं
आरज़ू के दिए जलाने से
गुलों का, नग़्मों का, ख़्वाबों का चाँदनी का सलाम
आ कि बज़्म-ए-तरब सजा लें हम
दिल-जलों को सताने आए हैं
बड़ी शफ़ीक़, बड़ी ग़म-शनास लगती हैं