मिरी गली में ये आहट थी किस के क़दमों की
ये कौन चाँद से दामन बचा के गुज़रा है
मिरे उदास दरीचे मुझे बताते हैं
बड़े ही दर्द से कोई बुला के गुज़रा है
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न तेरे दर्द के तारे ही अब सुलगते हैं
इतनी तल्ख़ फ़ज़ा में भी हम ज़िंदा हैं
दर्द का जाम ले के जीते हैं
आसमाँ की बुलंदियों से नदीम
आ कि बज़्म-ए-तरब सजा लें हम
दिल-जलों को सताने आए हैं
काविश-ए-सुब्ह-ओ-शाम बाक़ी है
सख़्त-जाँ भी हैं और नाज़ुक भी
तुम घटाओं का एहतिमाम करो
ऐ ग़म-ए-दोस्त, हम ने तेरे लिए
मिरी जवानी बहारों में भी उदास रही