गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
बुताँ के इश्क़ ने बे-इख़्तियार कर डाला
मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
न आया वो तो क्या हम नीम-जाँ भी
मैं बे-नवा उड़ा था बोसे को उन लबों के
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
इतने भी हम ख़राब न होते रहते
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब