मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
फूलों की सेज पर से जो बे-दिमाग़ उठ्ठे
तस्कीन-ए-दिल के वास्ते हर कम-बग़ल के पास
'मीर' को ज़ोफ़ में मैं देख कहा कुछ कहिए
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
वाए इस जीने पर ऐ मस्ती कि दौर-ए-चर्ख़ में
ख़ूब है ख़ाक से बुज़ुर्गों की
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली