मय-कशी सुब्ह-ओ-शाम करता हूँ
दुनिया से दर-गुज़र कि गुज़रगह अजब है ये
हाल-ए-बद में मिरे ब-तंग आ कर
तुम तो ऐ मेहरबान अनूठे निकले
तड़प है क़ैस के दिल में तह-ए-ज़मीं इस से
यही दर्द-ए-जुदाई है जो इस शब
सुना है चाह का दावा तुम्हारा
बुत-ख़ाने से दिल अपने उठाए न गए
दिल टुक उधर न आया ईधर से कुछ न पाया
गह सरगुज़िश्त उन ने फ़रहाद की निकाली
ताब-ओ-ताक़त को तो रुख़्सत हुए मुद्दत गुज़री
कोह-ओ-सहरा भी कर न जाए बाश