देखना क़िस्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाए है
मैं उसे देखूँ भला कब मुझ से देखा जाए है
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बला से हैं जो ये पेश-ए-नज़र दर-ओ-दीवार
मुँद गईं खोलते ही खोलते आँखें 'ग़ालिब'
नाकामी-ए-निगाह है बर्क़-ए-नज़ारा-सोज़
हर इक मकान को है मकीं से शरफ़ 'असद'
हुजूम-ए-ग़म से याँ तक सर-निगूनी मुझ को हासिल है
लाज़िम था कि देखो मिरा रस्ता कोई दिन और
अब जफ़ा से भी हैं महरूम हम अल्लाह अल्लाह
चाक की ख़्वाहिश अगर वहशत ब-उर्यानी करे
इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री 'ग़ालिब'
नफ़स न अंजुमन-ए-आरज़ू से बाहर खींच
नाला जुज़ हुस्न-ए-तलब ऐ सितम-ईजाद नहीं