सियाही जैसे गिर जाए दम-ए-तहरीर काग़ज़ पर
जब तक दहान-ए-ज़ख़्म न पैदा करे कोई
न लेवे गर ख़स-ए-जौहर तरावत सब्ज़ा-ए-ख़त से
रोने से और इश्क़ में बे-बाक हो गए
ख़ूब था पहले से होते जो हम अपने बद-ख़्वाह
ग़ुंचा-ए-ना-शगुफ़्ता को दूर से मत दिखा कि यूँ
रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
देखना तक़रीर की लज़्ज़त कि जो उस ने कहा
सर-गश्तगी में आलम-ए-हस्ती से यास है
बीम-ए-रक़ीब से नहीं करते विदा-ए-होश
परतव-ए-ख़ुर से है शबनम को फ़ना की तालीम
पुर हूँ मैं शिकवे से यूँ राग से जैसे बाजा