क्यूँ जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर
मंज़ूर थी ये शक्ल तजल्ली को नूर की
बाग़ पा कर ख़फ़क़ानी ये डराता है मुझे
मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए
सताइश-गर है ज़ाहिद इस क़दर जिस बाग़-ए-रिज़वाँ का
नज़र लगे न कहीं उन के दस्त-ओ-बाज़ू को
ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री 'ग़ालिब'
जब मय-कदा छुटा तो फिर अब क्या जगह की क़ैद
गर न अंदोह-ए-शब-ए-फ़ुर्क़त बयाँ हो जाएगा
बोसा देते नहीं और दिल पे है हर लहज़ा निगाह
आज वाँ तेग़ ओ कफ़न बाँधे हुए जाता हूँ मैं
हासिल से हाथ धो बैठ ऐ आरज़ू-ख़िरामी