क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ
सीखे हैं मह-रुख़ों के लिए हम मुसव्वरी
'असद' हम वो जुनूँ-जौलाँ गदा-ए-बे-सर-ओ-पा हैं
हर बुल-हवस ने हुस्न-परस्ती शिआ'र की
घर में था क्या कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता
लूँ वाम बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता से यक-ख़्वाब-ए-खुश वले
दोस्त ग़म-ख़्वारी में मेरी सई फ़रमावेंगे क्या
था ज़िंदगी में मर्ग का खटका लगा हुआ
ज़िद की है और बात मगर ख़ू बुरी नहीं
करने गए थे उस से तग़ाफ़ुल का हम गिला
कोई उम्मीद बर नहीं आती
इब्न-ए-मरयम हुआ करे कोई