इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा
फूँका है किस ने गोश-ए-मोहब्बत में ऐ ख़ुदा
शेर 'ग़ालिब' का नहीं वही ये तस्लीम मगर
कम नहीं जल्वागरी में, तिरे कूचे से बहिश्त
न हुई गर मिरे मरने से तसल्ली न सही
ज़िंदगी में तो वो महफ़िल से उठा देते थे
दोस्त ग़म-ख़्वारी में मेरी सई फ़रमावेंगे क्या
चश्म-ए-ख़ूबाँ ख़ामुशी में भी नवा-पर्दाज़ है
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
मैं ने मजनूँ पे लड़कपन में 'असद'
कोई उम्मीद बर नहीं आती
सद जल्वा रू-ब-रू है जो मिज़्गाँ उठाइए