सुनते हैं जो बहिश्त की तारीफ़ सब दुरुस्त
शाहिद-ए-हस्ती-ए-मुतलक़ की कमर है आलम
तुम अपने शिकवे की बातें न खोद खोद के पूछो
ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री 'ग़ालिब'
शब ख़ुमार-ए-शौक़-ए-साक़ी रुस्तख़ेज़-अंदाज़ा था
ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
तुम सलामत रहो हज़ार बरस
रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो
सरापा रेहन-इश्क़-ओ-ना-गुज़ीर-उल्फ़त-हस्ती