न बंधे तिश्नगी-ए-ज़ौक़ के मज़मूँ 'ग़ालिब'
गर न अंदोह-ए-शब-ए-फ़ुर्क़त बयाँ हो जाएगा
मैं और बज़्म-ए-मय से यूँ तिश्ना-काम आऊँ
पिन्हाँ था दाम-ए-सख़्त क़रीब आशियान के
कितने शीरीं हैं तेरे लब कि रक़ीब
अदा-ए-ख़ास से 'ग़ालिब' हुआ है नुक्ता-सरा
है आरमीदगी में निकोहिश बजा मुझे
नाकामी-ए-निगाह है बर्क़-ए-नज़ारा-सोज़
वाँ उस को हौल-ए-दिल है तो याँ मैं हूँ शर्म-सार
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
तुझ से क़िस्मत में मिरी सूरत-ए-क़ुफ़्ल-ए-अबजद
रोने से और इश्क़ में बेबाक हो गए