दश्त-ए-हस्ती में शब-ए-ग़म की सहर करने को
हिज्र वालों ने लिया रख़्त-ए-सफ़र सन्नाटा
Faiz Ahmad Faiz
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अज़ाब-ए-दीद में आँखें लहू लहू कर के
एक नए लफ़्ज़ की तख़्लीक़
तुम्हें जब रू-ब-रू देखा करेंगे
मैं कल तन्हा था ख़िल्क़त सो रही थी
जब हिज्र के शहर में धूप उतरी मैं जाग पड़ा तो ख़्वाब हुआ
इतनी मुद्दत बा'द मिले हो
चुनती हैं मेरे अश्क रुतों की भिकारनें
हर एक शब यूँही देखेंगी सू-ए-दर आँखें
मैं सोचता हूँ
यूँ देखते रहना उसे अच्छा नहीं 'मोहसिन'
हर वक़्त का हँसना तुझे बर्बाद न कर दे
अगरचे मैं इक चटान सा आदमी रहा हूँ