गहरी ख़मोश झील के पानी को यूँ न छेड़
छींटे उड़े तो तेरी क़बा पर भी आएँगे
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आप की आँख से गहरा है मिरी रूह का ज़ख़्म
दिसम्बर मुझे रास आता नहीं
वो दिलावर जो सियह शब के शिकारी निकले
एक पल में ज़िंदगी भर की उदासी दे गया
मैं कल तन्हा था ख़िल्क़त सो रही थी
जब से उस ने शहर को छोड़ा हर रस्ता सुनसान हुआ
लोगो भला इस शहर में कैसे जिएँगे हम जहाँ
सारे लहजे तिरे बे-ज़माँ एक मैं
वो अक्सर दिन में बच्चों को सुला देती है इस डर से
शाख़-ए-उरियाँ पर खिला इक फूल इस अंदाज़ से
अब वो तूफ़ाँ है न वो शोर हवाओं जैसा
अज़ल से क़ाएम हैं दोनों अपनी ज़िदों पे 'मोहसिन'