अज़ल से क़ाएम हैं दोनों अपनी ज़िदों पे 'मोहसिन'
चलेगा पानी मगर किनारा नहीं चलेगा
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ज़िक्र-ए-शब-ए-फ़िराक़ से वहशत उसे भी थी
किस ने संग-ए-ख़ामुशी फेंका भरे-बाज़ार पर
चुनती हैं मेरे अश्क रुतों की भिकारनें
उजड़े हुए लोगों से गुरेज़ाँ न हुआ कर
वो लम्हा भर की कहानी कि उम्र भर में कही
अश्क अपना कि तुम्हारा नहीं देखा जाता
साँसों के इस हुनर को न आसाँ ख़याल कर
सिर्फ़ हाथों को न देखो कभी आँखें भी पढ़ो
मौसम-ए-ज़र्द में एक दिल को बचाऊँ कैसे
बिछड़ के मुझ से ये मश्ग़ला इख़्तियार करना
क्यूँ तिरे दर्द को दें तोहमत-ए-वीरानी-ए-दिल
ये किस ने हम से लहू का ख़िराज फिर माँगा