अब तक मिरी यादों से मिटाए नहीं मिटता
भीगी हुई इक शाम का मंज़र तिरी आँखें
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सारे लहजे तिरे बे-ज़माँ एक मैं
मेरे कमरे में उतर आई ख़मोशी फिर से
जब से उस ने शहर को छोड़ा हर रस्ता सुनसान हुआ
क़त्ल छुपते थे कभी संग की दीवार के बीच
तुम्हें किस ने कहा था
कहाँ मिलेगी मिसाल मेरी सितमगरी की
भड़काएँ मिरी प्यास को अक्सर तिरी आँखें
एक नए लफ़्ज़ की तख़्लीक़
आप की आँख से गहरा है मिरी रूह का ज़ख़्म
जो दे सका न पहाड़ों को बर्फ़ की चादर
ब-नाम-ए-ताक़त कोई इशारा नहीं चलेगा
कल थके-हारे परिंदों ने नसीहत की मुझे