अब के बारिश में तो ये कार-ए-ज़ियाँ होना ही था
अपनी कच्ची बस्तियों को बे-निशाँ होना ही था
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चलो छोड़ो
मैं ने अक्सर ख़्वाब में देखा
अज़ल से क़ाएम हैं दोनों अपनी ज़िदों पे 'मोहसिन'
गहरी ख़मोश झील के पानी को यूँ न छेड़
मुझे अब डर नहीं लगता
जब से उस ने शहर को छोड़ा हर रस्ता सुनसान हुआ
अब ये सोचूँ तो भँवर ज़ेहन में पड़ जाते हैं
भड़काएँ मिरी प्यास को अक्सर तिरी आँखें
कठिन तन्हाइयों से कौन खेला मैं अकेला
कितने लहजों के ग़िलाफ़ों में छुपाऊँ तुझ को
अब तक मिरी यादों से मिटाए नहीं मिटता
बिछड़ के मुझ से ये मश्ग़ला इख़्तियार करना