तू और ग़म-ए-उल्फ़त 'जज़्बी' मुझ को तो यक़ीं आए न कभी
जिस क़ल्ब पे टूटे हों पत्थर उस क़ल्ब में नश्तर टूट गए
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मेरी ही नज़र की मस्ती से सब शीशा-ओ-साग़र रक़्साँ थे
शमीम-ए-ज़ुल्फ़ ओ गुल-ए-तर नहीं तो कुछ भी नहीं
वही कसीफ़ घटाएँ वही भयानक रात
चमन में थे जो चमन ही की दास्तान सुनते
अल्लाह-रे बे-ख़ुदी कि चला जा रहा हूँ मैं
मेरे सिवा
आह भी इक कोशिश-ए-नाकाम है मेरे लिए
मुस्कुरा कर डाल दी रुख़ पर नक़ाब
शिकवा ज़बान से न कभी आश्ना हुआ
हमीं हैं सोज़ हमीं साज़ हैं हमीं नग़्मा
गुल
दिल में कुछ सोज़-ए-तमन्ना के निशाँ मिलते हैं