कुछ इस अंदाज़ से सय्याद ने आज़ाद किया
जो चले छुट के क़फ़स से वो गिरफ़्तार चले
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निकलना आरज़ू का दिल से मालूम
अब वही सैद है जो था सय्याद
बद-ज़न हैं अहल-ए-काबा मुझ दैर-आश्ना से
अब कौन बात रह गई ये बात भी गई
नावक कहें सिनाँ कहें तलवार क्या कहें
तेरी बख़्शिश के भरोसे पे ख़ताएँ की हैं
दिन भी है रात भी है सुब्ह भी है शाम भी है
जबीं पर ख़ाक है ये किस के दर की
तुम भूल गए मुझ को यूँ याद दिलाता हूँ
ये तसर्रुफ़ है 'मुबारक' दाग़ का
अजब रंग की मय-परस्ती रही