क़यामत की हक़ीक़त जानता हूँ
ये इक ठोकर है मेरे फ़ित्नागर की
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बग़ल में हम ने रात इक ग़ैरत-ए-महताब देखा है
जो पाँच वक़्त मुसल्ले पे क़िबला-रू निकले
कहाँ क़िस्मत में इस की फूल होना
जो निगाह-ए-नाज़ का बिस्मिल नहीं
क़िबला-ओ-काबा ये तो पीने पिलाने के हैं दिन
कभी दिल की कली खिली ही नहीं
या दूर मिरा हिजाब कर दे
तुम भूल गए मुझ को यूँ याद दिलाता हूँ
समझाएँ किस तरह दिल-ए-ना-कर्दा-कार को
चितवन जो क़हर की है तो तेवर जलाल के
जिनाँ की कहते हैं यूँ मुझ से हज़रत-ए-वाइज़
क्या कहें क्या क्या किया तेरी निगाहों ने सुलूक