बाँधा था ख़ुद ही आप ने पैग़ाम-ए-इल्तिफ़ात
क्या बात थी जो आप ही ख़ुद बद-गुमाँ हुए
Habib Jalib
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उन्हें ख़ुदा का अमल शर्मसार कर देगा
ख़ुदा जाने ये सोज़-ए-ज़बत है या ज़ख़्म-ए-नाकामी
इक इंक़लाब-ए-मुसलसल है ज़िंदगी मेरी
सोचा था उन से बात निभाएँगे उम्र भर
वो नाम ज़हर का रख दें दवा तो क्या होगा
वो नमाज़-ए-इश्क़ ही क्या जो सलाम तक न पहुँचे
रखते हैं जो अल्लाह की क़ुदरत पे भरोसा
तर्क-ए-तअल्लुक़ात का कुछ उन को ग़म नहीं
अजब बे-कैफ़ है रातों की तन्हाई कई दिन से
फ़ैज़ान-ए-मोहब्बत न हुआ आम अभी तक
हम हिज्र की काली रातों में जब बिस्तर-ए-ख़्वाब पे जाते हैं