वो नाम ज़हर का रख दें दवा तो क्या होगा

वो नाम ज़हर का रख दें दवा तो क्या होगा

कहें जो ख़ून को रंग-ए-हिना तो क्या होगा

चमन की सम्त चला तो है कारवान-ए-बहार

जो राहज़न ही हुए रहनुमा तो क्या होगा

हरीफ़-ए-सैल-ए-हवादिस तो है सफ़ीना-ए-क़ौम

जो नज़्र-ए-मौज हुआ ना-ख़ुदा तो क्या होगा

तरस रहा है ज़माना सुकून-ए-दिल के लिए

सुकून-ए-दिल न मयस्सर हुआ तो क्या होगा

चमन के इश्क़ में अहल-ए-वफ़ा ये भूल गए

बदल गई जो चमन की फ़ज़ा तो क्या होगा

गुज़र रही हैं निगाहें हद-ए-तजस्सुस से

मिला न कोई जो दर्द-आश्ना तो क्या होगा

हमारा ख़ून था शादाबी-ए-चमन का सबब

जो ये चमन के न काम आ सका तो क्या होगा

ग़म-ए-हयात से यूँ तो हैं अश्क-बार आँखें

नज़र से ख़ून टपकने लगा तो क्या होगा

बयाँ करूँ तो सही उन की दास्तान-ए-सितम

वो हो गए उसे सन कर ख़फ़ा तो क्या होगा

बस इक निगाह-ए-करम तक है ज़िंदगी का नशात

जो ये भी टूट गया आसरा तो क्या होगा

अभी है मोहलत-ए-हुस्न-ए-अमल उठो 'ज़ौक़ी'

जवाब देने लगे दस्त-ओ-पा तो क्या होगा

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