तर्क-ए-तअल्लुक़ात का कुछ उन को ग़म नहीं
हम तो शिकस्त-ए-अहद-ए-वफ़ा से मलूल हैं
Jaun Eliya
Mir Taqi Mir
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Habib Jalib
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वज्ह-ए-सुकूँ न बन सकीं हुस्न की दिल-नवाज़ियाँ
जुनूँ में मश्क़-ए-तसव्वुर बढ़ा रहा हूँ मैं
रास्ते में मिल गए तो पूछ लेते हैं मिज़ाज
रखते हैं जो अल्लाह की क़ुदरत पे भरोसा
निगाह-ए-फ़ितरत में दर-हक़ीक़त वो ज़िंदगी ज़िंदगी नहीं है
दूर रह कर वतन की फ़ज़ा से जब भी अहबाब की याद आई
बाँधा था ख़ुद ही आप ने पैग़ाम-ए-इल्तिफ़ात
सोचा था उन से बात निभाएँगे उम्र भर
वो नाम ज़हर का रख दें दवा तो क्या होगा
वो नमाज़-ए-इश्क़ ही क्या जो सलाम तक न पहुँचे
इक इंक़लाब-ए-मुसलसल है ज़िंदगी मेरी
ख़ुदा जाने ये सोज़-ए-ज़बत है या ज़ख़्म-ए-नाकामी