रास्ते में मिल गए तो पूछ लेते हैं मिज़ाज
इस से बढ़ कर और क्या उन की इनायत चाहिए
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जुनूँ में मश्क़-ए-तसव्वुर बढ़ा रहा हूँ मैं
ख़ुदा जाने ये सोज़-ए-ज़बत है या ज़ख़्म-ए-नाकामी
वो नाम ज़हर का रख दें दवा तो क्या होगा
वो नमाज़-ए-इश्क़ ही क्या जो सलाम तक न पहुँचे
सोचा था उन से बात निभाएँगे उम्र भर
वज्ह-ए-सुकूँ न बन सकीं हुस्न की दिल-नवाज़ियाँ
रखते हैं जो अल्लाह की क़ुदरत पे भरोसा
अजब बे-कैफ़ है रातों की तन्हाई कई दिन से
इक इंक़लाब-ए-मुसलसल है ज़िंदगी मेरी
उन की निगाह-ए-लुत्फ़ की तासीर क्या कहूँ
दुनिया के इस इबरत-ख़ाने में हालात बदलते रहते हैं