ख़ुदा जाने ये सोज़-ए-ज़बत है या ज़ख़्म-ए-नाकामी
कभी होती न थी सीने में लेकिन ये जलन पहले
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बाँधा था ख़ुद ही आप ने पैग़ाम-ए-इल्तिफ़ात
उन्हें ख़ुदा का अमल शर्मसार कर देगा
दूर रह कर वतन की फ़ज़ा से जब भी अहबाब की याद आई
वो नाम ज़हर का रख दें दवा तो क्या होगा
रास्ते में मिल गए तो पूछ लेते हैं मिज़ाज
वज्ह-ए-सुकूँ न बन सकीं हुस्न की दिल-नवाज़ियाँ
निगाह-ए-फ़ितरत में दर-हक़ीक़त वो ज़िंदगी ज़िंदगी नहीं है
जुनूँ में मश्क़-ए-तसव्वुर बढ़ा रहा हूँ मैं
इक इंक़लाब-ए-मुसलसल है ज़िंदगी मेरी
वो नमाज़-ए-इश्क़ ही क्या जो सलाम तक न पहुँचे
अजब बे-कैफ़ है रातों की तन्हाई कई दिन से
हम हिज्र की काली रातों में जब बिस्तर-ए-ख़्वाब पे जाते हैं