उन्हें ख़ुदा का अमल शर्मसार कर देगा
बिछा रहे हैं जो काँटे किसी की राहों में
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वज्ह-ए-सुकूँ न बन सकीं हुस्न की दिल-नवाज़ियाँ
वो नाम ज़हर का रख दें दवा तो क्या होगा
जुनूँ में मश्क़-ए-तसव्वुर बढ़ा रहा हूँ मैं
सोचा था उन से बात निभाएँगे उम्र भर
रास्ते में मिल गए तो पूछ लेते हैं मिज़ाज
हम हिज्र की काली रातों में जब बिस्तर-ए-ख़्वाब पे जाते हैं
अजब बे-कैफ़ है रातों की तन्हाई कई दिन से
तर्क-ए-तअल्लुक़ात का कुछ उन को ग़म नहीं
दुनिया के इस इबरत-ख़ाने में हालात बदलते रहते हैं
इक इंक़लाब-ए-मुसलसल है ज़िंदगी मेरी
ख़ुदा जाने ये सोज़-ए-ज़बत है या ज़ख़्म-ए-नाकामी
रखते हैं जो अल्लाह की क़ुदरत पे भरोसा