उन की निगाह-ए-लुत्फ़ की तासीर क्या कहूँ
ज़र्रे को आफ़्ताब बना कर चले गए
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निगाह-ए-फ़ितरत में दर-हक़ीक़त वो ज़िंदगी ज़िंदगी नहीं है
फ़ैज़ान-ए-मोहब्बत न हुआ आम अभी तक
हम हिज्र की काली रातों में जब बिस्तर-ए-ख़्वाब पे जाते हैं
रास्ते में मिल गए तो पूछ लेते हैं मिज़ाज
जुनूँ में मश्क़-ए-तसव्वुर बढ़ा रहा हूँ मैं
वो नमाज़-ए-इश्क़ ही क्या जो सलाम तक न पहुँचे
सोचा था उन से बात निभाएँगे उम्र भर
इक इंक़लाब-ए-मुसलसल है ज़िंदगी मेरी
ख़ुदा जाने ये सोज़-ए-ज़बत है या ज़ख़्म-ए-नाकामी
अजब बे-कैफ़ है रातों की तन्हाई कई दिन से
वो नाम ज़हर का रख दें दवा तो क्या होगा
दुनिया के इस इबरत-ख़ाने में हालात बदलते रहते हैं