पलकें नहीं छोड़तीं कि इक दम
आँखों से तिरी निगाह निकले
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ये रोज़ ढूँढ लाए है इक ख़ूब-रू नया
हल्क़ा-ए-ज़ंजीर से निकला न ये पा-ए-जुनूँ
साक़ी मय-ख़ाना का गर कम-दही पर है मिज़ाज
ठठ की ठठ इतनी चली आती है ये काहे को
देख कर इक जल्वे को तेरे गिर ही पड़ा बे-ख़ुद हो मूसा
कुछ टूटे फटे सीने को साथ अपने सफ़र में
इतनी बे-शर्म-ओ-हया हो गई क्यूँ दुख़्तर-ए-रज़
सौ बार गया मैं उस के दर पर
दो तीन दम-ए-सर्द भरे हैं तो वो बोले
कहूँ तो किस से कहूँ अपना दर्द-ए-दिल मैं ग़रीब
मुवाफ़क़त हो जो ताले की उस की मज्लिस में
महरूम है नामा-दार-ए-दुनिया