मुद्दतों कोर-निगाही दिल की
नूर-ए-इरफ़ाँ को तरसती रहती
तू जो ख़ुर्शीद न बन कर आती
ज़ेहन पर ओस बरसती रहती
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इन्हीं पत्थरों पे चल कर अगर आ सको तो आओ
यूँ तो वो हर किसी से मिलती है
जिस दिन से अपना तर्ज़-ए-फ़क़ीराना छुट गया
मेरी आँखों में नींद चुभती है
ग़म-ए-दौराँ ने भी सीखे ग़म-ए-जानाँ के चलन
रोकता है ग़म-ए-इज़हार से पिंदार मुझे
किसी तो काम ज़माने के सोगवार आए
नावक-ए-ज़ुल्म उठा दशना-ए-अंदोह सँभाल
आदमी
हुई ईजाद नई तर्ज़-ए-ख़ुशामद कि नहीं
क्या क्या नज़र को शौक़-ए-हवस देखने में था
पहला पत्थर