मुज़्तर ख़ैराबादी कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का मुज़्तर ख़ैराबादी (page 8)
नाम | मुज़्तर ख़ैराबादी |
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अंग्रेज़ी नाम | Muztar Khairabadi |
जन्म की तारीख | 1865 |
मौत की तिथि | 1927 |
तू मुझे किस के बनाने को मिटा बैठा है
तेरी रंगत बहार से निकली
सहें कब तक जफ़ाएँ बेवफ़ाई देखने वाले
सब शरीक-ए-सदमा-ओ-आज़ार कुछ यूँही से हैं
रुख़ किसी का नज़र नहीं आता
रवाँ रहता है किस की मौज में दिन रात तू पानी
रह के पर्दे में रुख़-ए-पुर-नूर की बातें न कर
पूछा कि वज्ह-ए-ज़िंदगी बोले कि दिलदारी मिरी
पर्दा-ए-दर्द में आराम बटा करते हैं
न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
न बुलवाया न आए रोज़ वा'दा कर के दिन काटे
मुख़ालिफ़ है सबा-ए-नामा-बर कुछ और कहती है
मोहब्बत को कहते हो बरती भी थी
मोहब्बत कर के लाखों रंज झेले बेकली पाई
मोहब्बत इब्तिदा में कुछ नहीं मा'लूम होती है
मोहब्बत बा'इस-ए-ना-मेहरबानी होती जाती है
मेरे महबूब तुम हो यार तुम हो दिल-रुबा तुम हो
मेरे अरमाँ वो सुधारे यूँ के यूंहीं रह गए
मिरे अरमान मायूसी के पाले पड़ते जाते हैं
मकतब की आशिक़ी भी तारीख़-ए-ज़िंदगी थी
माइल-ए-सोहबत-ए-अग़्यार तो हम हैं तुम कौन
क्या कहूँ हसरत-ए-दीदार ने क्या क्या खींचा
किसी के संग-ए-दर से अपनी मय्यत ले के उट्ठेंगे
किसी बुत की अदा ने मार डाला
कैसे दिल लगता हरम में दौर-ए-पैमाना न था
जुनूँ के जोश में इंसान रुस्वा हो ही जाता है
जुदाई मुझ को मारे डालती है
जो पूछा मुँह दिखाने आप कब चिलमन से निकलेंगे
जफ़ा से वफ़ा मुस्तरद हो गई
जब कहा तीर तिरी आँख ने अक्सर मारा