मैं लौ में लौ हूँ, अलाव में हूँ अलाव 'नदीम'
सो हर चराग़ मिरा ए'तिराफ़ करता रहा
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दिल मुब्तला-ए-हिज्र रिफ़ाक़त में रह गया
एक सुख़न को भूल कर एक कलाम था ज़रूर
और कोई पहचान मिरी बनती ही नहीं
मोहब्बत लाज़मी है मानता हूँ
मोहब्बत ने अकेला कर दिया है
आँख उठा कर तुझे देखा न पुकारा मैं ने
अजीब हूँ कि मोहब्बत शनास हो कर भी
रूह हाज़िर है मिरे यार कोई मस्ती हो
दिल से इक याद भुला दी गई है
बद-नसीबी कि इश्क़ कर के भी
हर एक साँस पे धड़का कि आख़िरी तो नहीं