तुम्हें हमारी मोहब्बतों के हसीन जज़्बे बुला रहे हैं
जो हम ने लिक्खे थे तुम पे हमदम वो सारे नग़्मे बुला रहे हैं
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वस्ल ने जब मिरी तख़्लीक़ को ज़ंजीर क्या
फ़ुज़ूल वक़्त समझ के गुज़ार कर मुझ को
साहिल पे तेरे ब'अद की वीरानी खा गई
तुझे तहरीर किया
अपनी उलझन को बढ़ाने की ज़रूरत क्या है
सरहद
दुनिया बदल गई थी कोई ग़म न था मुझे
तिरी क़ुर्बतें हैं सकूँ जान-ए-जानाँ
तमाम उम्र तिरे इंतिज़ार में हमदम
तुझ से मैं जंग का एलान भी कर ही दूँगा
दिसम्बर